(नागपत्री एक रहस्य-29)

आस्तिक मुनि और राजा परीक्षित की कहानी का विस्तृत वर्णन सुनकर लक्षणा को बहुत उत्साह आ रहा था, और उसमें आगे की कहानी सुनने के लिए भारी जिज्ञासा नजर आ रही थी, सावित्री देवी लक्षणा को लगातार सर्प को और नागों के बारे में बताएं जा रही थी।

इस सृष्टि में श्राप और दुआओं की महत्ता अच्छे और बुरे कर्म के फल का प्रावधान किसी भी युग में टाले नहीं टल सकते, हां किसी विशेष कृपा से उसमें कमी या वृद्धि संभव है, लेकिन पूरी तरह निष्फल करना या हो जाना स्वयं विधाता के भी हाथों में नहीं है, क्योंकि इस सृष्टि के रचयिता ने यह नियम अपने खुद के लिए भी लागू किए हैं, तब भला और कोई इन नियमों से कैसे बच सकता है??
               ठीक इसी तरह कद्रू जो स्वयं ऋषि कश्यप की पत्नी, जिन्हें  अष्टकुल नाग की माता कहा जाता है, जिनके पुत्रों में अनंत शेष, नाग, वासुकी, तक्षक, कर्कोटक, यज्ञ, महापज्ञ, शंख और कुलिक है।

यह सभी महा कद्रू के पुत्र थे, जबकि जिनमें हम भेद नहीं कर पाते , नाग और सर्प भिन्न-भिन्न है, क्योंकि सभी नाग कद्रू के पुत्र हैं, वहीं सर्पों की माता क्रोधवशा है।
              ऋषि कश्यप की एक और पत्नी विनता जिन्हें पक्षी राज गरूड़ की माता कहा जाता है।

ये दोनों (कद्रू और विनता) ने एक समय एक सफेद रंग का घोड़ा देखा, और स्त्री स्वभाव के अनुसार शर्त लगाई, जिसमें विनता ने कहा कि यह घोड़ा पूरी तरह सफेद है, लेकिन स्वभाव वश दूसरे पक्ष को लेकर कद्रू ने कहा हां, घोड़ा तो सफेद हैं, लेकिन इसकी पूंछ काली है।
                   और कद्रू में उसी समय अपनी बात को सही साबित करने के लिए अपने पुत्रों से कहा कि तुम सूक्ष्म रूप में जाकर घोड़े की पूंछ से चिपक जाओ, जिससे उसकी पूंछ काली दिखाई दे और मैं शर्त जीत जाऊं।

लेकिन कुछ पुत्रों ने कद्रू की इस बात को मानने से इंकार कर दिया, और तब क्रोध में आकर नाग माता कद्रू ने स्वयं ही अपने उन पुत्रों को श्राप दे दिया कि तुम सभी कलयुग के प्रारंभ में जनमेजय के सर्प यज्ञ में भस्म हो जाओगे,और इसीलिए उनका श्राप फलित हुआ।
                    और इसी श्राप की पूर्ति हेतु विधि के विधान के अनुसार समीक ऋषि के पुत्र श्रृंगी के द्वारा परीक्षित को श्राप दिया गया, तक्षक नाग द्वारा राजा परीक्षित को ढसना और उनकी मृत्यु का समाचार सुन उनके पुत्र जनमेजय द्वारा संकल्प लिया जाना कि मैं ऐसा यज्ञ करूंगा, कि जिससे संपूर्ण नाग जाति का ही समूल नाश हो जाएगा।


यह सब कोई एक पल की घटना नहीं, वरण एक काल के सिरे से लेकर दूसरे सिरे तक कड़ी दर कड़ी त्रुटि हुई, अनेकों घटनाएं जिनका वर्णन यदि करने बैठे तो ना जाने कितने ही लेख लिखे जा सकते हैं, कितने ही महापुरुषों का समावेश इसमें हो सकता है, क्योंकि ऐसी कई घटनाएं जिन्हें हम सिर्फ आज को लेकर सोचते हैं, उसका मूलाधार वर्षों पहले जन्म ले चुका होता है।    
            ठीक ऐसे ही अपनी मां से मिले श्राप को देखकर अत्यंत भयभीत उन भाइयों ने कठोर तप कर अपने कुल रक्षा हेतु विशेष कृपा प्रारंभ करने का विचार किया।


जिनमें कठोर तप के पश्चात अनंतशेष श्री हरि विष्णु की सैया बन गए, और अपना सारा राजपाठ नागराज वासुकी को सौंप दिया। वहीं नागराज वासुकी ने शिवजी का कठोर तप कर अपने कुल को बचाने का उपाय ढूंढना चाहा।
            तब उन्हें यह ज्ञात हुआ कि उनके कुल की रक्षा मां मनसा और ऋषि जरत्कारु के पुत्र आस्तिक मुनि द्वारा की जाएगी,और इस प्रकार होने भगवान शिव के चरणों में स्थान पाया और संपूर्ण कार्य भार अपने भाई कर्कोटक और तक्षक को सौंप दिया।

समय आने पर मनसा देवी के पुत्र आस्तिक मुनि जिन्हें गर्भ में ही धर्म और ज्ञान का उद्देश्य स्वयं आदिदेव शिवशंभू महादेव से मिला, और उन्होंने भगवान शंकर से ही महामृत्युंजय का अनुग्रह पाया था,
            मनसा देवी जिनका विवरण कुछ इस प्रकार व्यवस्थित पुराण में बताया गया है.....मनसा देवी को सर्प और कमल पर विराजित दिखाया जाता है, कहते हैं कि सात नाग उनके रक्षण में सदैव विद्यमान हैं, उनकी गोद में उनका पुत्र आस्तिक विराजमान है, मनसा का एक नाम वासुकी भी है और पिता, सौतेली मां और पति द्वारा उपेक्ष‍ित होने की वजह से उनका स्‍वभाव काफी गुस्‍से वाला माना जाता है।

जरत्कारुर्जगद्गौरी मनसा सिद्धयोगिनी।
वैष्णवी नागभगिनी शैवी नागेश्वरी तथा ।।

जरत्कारुप्रियाऽऽस्तीकमाता विषहरीति च।
महाज्ञानयुता चैव सा देवी विश्वपूजिता ।।

द्वादशैतानि नामानि पूजाकाले तु यः पठेत्।
तस्य नागभयं नास्ति तस्य वंशोद्भवस्य च ।।

अर्थात ये भगवती कश्यप जी की मानसी कन्या हैं, तथा मन से उद्दीप्त होती हैं, इसलिये ‘मनसा देवी’ के नाम से विख्यात हैं, आत्मा में रमण करने वाली इन सिद्धयोगिनी वैष्णव देवी ने तीन युगों तक परब्रह्म भगवान श्रीकृष्ण की तपस्या की है।
                  गोपीपति परम प्रभु उन परमेश्वर ने इनके वस्त्र और शरीर को जीर्ण देखकर इनका ‘जरत्कारु’ नाम रख दिया, साथ ही उन कृपानिधि ने कृपापूर्वक इनकी सभी अभिलाषाएँ पूर्ण कर दीं, इनकी पूजा का प्रचार किया और स्वयं भी इनकी पूजा की।

स्वर्ग में, ब्रह्मलोक में, भूमण्डल में और पाताल में– सर्वत्र इनकी पूजा प्रचलित हुई, सम्पूर्ण जगत में ये अत्यधिक गौरवर्णा, सुन्दरी और मनोहारिणी हैं।
                 अतएव ये साध्वी देवी ‘जगद्गौरी’ के नाम से विख्यात होकर सम्मान प्राप्त करती हैं, भगवान शिव से शिक्षा प्राप्त करने के कारण ये देवी ‘शैवी’ कहलाती हैं, भगवान विष्णु की ये अनन्य उपासिका हैं, इसलिए लोग इन्हें ‘वैष्णवी’ कहते हैं।

राजा जनमेजय के यज्ञ में इन्हीं के सत्प्रयत्न से नागों के प्राणों की रक्षा हुई थी, अतः इनका नाम ‘नागेश्वरी’ और ‘नागभगिनी’ पड़ गया, विष का संहार करने में परम समर्थ होने से इनका एक नाम ‘विषहरी’ है, इन्हें भगवान शंकर से योगसिद्धि प्राप्त हुई थी, अतः ये ‘सिद्धयोगिनी’ कहलाने लगीं।
                    इन्होंने शंकर से महान गोपनीय ज्ञान एवं मृत संजीवनी नामक उत्तम विद्या प्राप्त की है, इस कारण विद्वान पुरुष इन्हें ‘महाज्ञानयुता’ कहते हैं, ये परम तपस्विनी देवी मुनिवर आस्तीक की माता हैं, अतः ये देवी जगत में सुप्रतिष्ठित होकर ‘आस्तीकमाता’ नाम से विख्यात हुई हैं, जगत्पूज्य योगी महात्मा मुनिवर जरत्कारु की प्यारी पत्नी होने के कारण ये ‘जरत्कारुप्रिया’ नाम से विख्यात हुईं।

लक्षणा, सावित्री देवी के मुख से नाग और सर्पों का विवरण सुनकर अति उत्साहित हुए जा रही थी, और उसका उत्साह बढ़ते ही जा रहा था।
              तभी सावित्री देवी लक्ष्णा से कहती है कि मेरी प्यारी बच्ची पहले तुम थोड़ा कुछ खा लो, भोजन कर लो, उसके बाद मैं आगे की कहानी तुम्हें थोड़ी देर बाद सुनाती हूं।

क्रमशः.....

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